राम आसरे वैसे तो सामुदायिक भावना से नशा करने में रुचि रखते हैं,परंतु आज तालाब के किनारे नितांत एकांत में टोटल से अपने भीतर के रिक्त स्थान को धुएं से भर रहे थे। उच्छ्वास की क्रिया से भीतर का स्थान नैसर्गिक तरीके से पुनः रिक्त हो जा रहा था, जिसे राम आसरे बार-बार भरने की कोशिश कर रहा था।
अपने भीतर के खालीपन को भरने की इस कोशिश को यहीं रोक कर राम आसरे उठा और आगे बढ़ चला।उसे समझ में आ गया कि सामूहिकता का कार्य अकेले से नही हो सकता और वही पदार्थ भीतर के खालीपन को भर सकता है जो भीतर जा के टिक सके अर्थात मदिरा।पंचायत चुनाव के पहले की बात होती तो कोई समस्या नहीं थी।प्रत्याशी लोग जबरन "पौवा" पकड़ा जाते थे,परंतु चुनाव के बाद तो जैसे आपूर्ति श्रृंखला प्रभावित हो गई है।
चुनाव के बाद ऐसी स्थिति की कल्पना राम आसरे न कर सका था।उसे लग रहा था कि "भैया जी" की कृपा सदैव बनी रहेगी।राम आसरे घर पहुंचा,पिताजी घर पर ही थे।किसी तरह नजर बचाकर घर में घुसा,गेहूं को झोले में भरकर पीछे के रास्ते से घर से निकल गया।देर रात घर लौटा तो पैर लड़खड़ा रहे थे।खालीपन दूर हो गया था,भारीपन को पैर संभाल नहीं पा रहे थे।