भारत की व्यापार नीति: विकास, चुनौतियाँ और भविष्य की राह
भारत की आर्थिक यात्रा में व्यापार नीति ने हमेशा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जो देश के विकास पथ को आकार देने और वैश्विक मंच पर इसकी स्थिति को परिभाषित करने में सहायक रही है। स्वतंत्रता के बाद के संरक्षणवादी दृष्टिकोण से लेकर 21वीं सदी की उदारीकरण की लहर तक, नीतिगत विकल्पों ने भारत के आर्थिक प्रदर्शन पर गहरा प्रभाव डाला है। यह लेख इसी जटिल यात्रा की पड़ताल करता है। यह इस केंद्रीय प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करता है: भारत की व्यापार नीति कैसे विकसित हुई है, इसके प्रमुख प्रभाव क्या रहे हैं, और 21वीं सदी में इसे किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है? मूलभूत शोध और समकालीन विश्लेषण के आधार पर, यह लेख एक व्यापक तस्वीर प्रस्तुत करेगा, जो पेशेवरों और नीति-निर्माताओं दोनों के लिए सुलभ होगी।
भारत में आर्थिक विकास के मॉडल को लेकर एक लंबी और वैचारिक बहस चली है, जो स्वतंत्रता के बाद की आयात-प्रतिस्थापन औद्योगीकरण और नेहरूवादी समाजवाद से प्रभावित आर्थिक दर्शन में निहित है: क्या विकास का नेतृत्व सरकार को करना चाहिए या निर्यात को? इस ऐतिहासिक दुविधा के बीच, अनुभवजन्य साक्ष्य महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। 1950 से 1996 की अवधि को कवर करने वाला एक मौलिक अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि किस प्रकार की व्यापार नीति ने भारत के लिए वास्तव में काम किया है।
अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि एक खुली और उदार व्यापार रणनीति भारत के आर्थिक स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है। भारत में आर्थिक विकास को लेकर किए गए शोध से यह स्पष्ट होता है कि उदार व्यापार नीतियाँ तीव्र विकास को प्रोत्साहित करती हैं। विशेष रूप से 'निर्यात-आधारित विकास' की अवधारणा भारत जैसे बड़े देश के लिए भी उपयुक्त सिद्ध हुई है, जहाँ निर्यात और उत्पादन वृद्धि के बीच दो-तरफा कारण-कार्य संबंध पाया गया है। इसके विपरीत, 'सरकार-आधारित विकास' मॉडल को इस विश्लेषण में खारिज किया गया है, क्योंकि सरकारी निवेश का विस्तार आर्थिक वृद्धि को बाधित करता है, जबकि सरकारी खपत का प्रभाव नगण्य रहता है। एक उल्लेखनीय निष्कर्ष यह भी है कि व्यापार नीति का सकारात्मक प्रभाव केवल पूंजी निवेश से नहीं, बल्कि उत्पादकता में सुधार के माध्यम से होता है। इससे यह संकेत मिलता है कि खुली और प्रतिस्पर्धात्मक नीतियाँ अर्थव्यवस्था को अधिक कुशल और गतिशील बनाती हैं।
हालांकि उदार व्यापार के मूलभूत लाभ स्पष्ट हैं फिर भी 21वीं सदी की वैश्विक अर्थव्यवस्था नई और विशिष्ट चुनौतियाँ प्रस्तुत करती है, जिनके लिए एक अलग दृष्टिकोण की आवश्यकता है।21वीं सदी में किसी भी देश के लिए विनिर्माण और व्यापार को बढ़ावा देना तभी संभव है जब वह वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं (GVCs) का हिस्सा बने। GVCs का मतलब है कि किसी उत्पाद के अलग-अलग हिस्से जैसे डिज़ाइन, निर्माण और विपणन अलग-अलग देशों में होते हैं। विकासशील देशों के लिए GVCs में शामिल होना तकनीक, रोजगार और निर्यात बढ़ाने का एक अच्छा तरीका है। इससे वे पूरे उद्योग खड़ा करने के बजाय किसी खास हिस्से में विशेषज्ञता हासिल कर सकते हैं, जिससे औद्योगीकरण और तकनीकी विकास तेज़ होता है।
हालांकि, अमिता बत्रा के अनुसार, भारत इस क्षेत्र में पीछे रह गया है। पिछले 20 वर्षों में वैश्विक व्यापार बढ़ा है, लेकिन भारत की हिस्सेदारी खासकर विनिर्माण व्यापार में कम रही है। और सबसे अहम बात यह है कि भारत GVCs में अपने क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धियों की तुलना में कम जुड़ पाया है।
किसी देश का व्यापार प्रदर्शन विभिन्न प्रकार के नीतिगत उपकरणों से आकार लेता है, जिसमें पारंपरिक उपायों से लेकर आधुनिक समझौते तक शामिल हैं। भारत की व्यापार नीति के विकास को समझने के लिए इन प्रमुख उपकरणों की जांच करना महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये सीधे तौर पर वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में देश की भागीदारी को प्रभावित करते हैं।
भारत की व्यापार नीति में कई प्रमुख उपकरण शामिल हैं जो व्यापार को बढ़ावा देने में मदद करते हैं। पारंपरिक उपायों में टैरिफ यानी आयात पर कर और निर्यात योजनाएं आती हैं, जो घरेलू उद्योगों की रक्षा और निर्यात को बढ़ावा देने के लिए बनाए गए हैं। हालांकि, आज के वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) के दौर में इनकी प्रभावशीलता पर फिर से सोचने की जरूरत है। इसके अलावा, विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZs) ऐसे क्षेत्र होते हैं जहां व्यापार और निवेश को बढ़ावा देने के लिए खास नियम और प्रोत्साहन दिए जाते हैं। ये क्षेत्र GVC में जुड़ने के लिए अहम भूमिका निभा सकते हैं। आधुनिक व्यापार को आसान बनाने के लिए नए उपाय भी जरूरी हैं, जैसे क्षेत्रीय और मुक्त व्यापार समझौते (RTAs/FTAs) और निवेश संधियाँ, जो देशों के बीच व्यापार की बाधाएं कम करते हैं और अंतरराष्ट्रीय निवेश को बढ़ावा देते हैं। इससे भारत को GVCs में बेहतर तरीके से शामिल होने में मदद मिलती है।
भविष्य की राह: अतीत से भविष्य के लिए सबक
एक प्रभावी भविष्य की नीति तैयार करने के लिए ऐतिहासिक साक्ष्यों और समकालीन चुनौतियों का संश्लेषण करना महत्वपूर्ण है। ये मूलभूत नीतिगत निष्कर्ष भविष्य की राह दिखाते हैं:
- निर्यात निराशावाद को समाप्त करना: अतीत में भारत की निर्यात क्षमता के बारे में जो निराशावाद था, वह गलत साबित हुआ। अध्ययन से पता चलता है कि वास्तविक प्रभावी विनिमय दर और विश्व आय के संबंध में निर्यात की लोच काफी अधिक थी, यह दर्शाता है कि विश्व मांग भारतीय निर्यात के लिए एक महत्वपूर्ण बाधा नहीं थी।
- निर्यात विस्तार को प्राथमिकता देना: भारत को अतीत की तुलना में कहीं अधिक मजबूती से निर्यात विस्तार की नीति अपनानी चाहिए। यह विकास का एक सिद्ध इंजन है।
- संरचनात्मक सुधार: निर्यात को बढ़ावा देने के लिए व्यापक संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता है। इसमें एक आक्रामक विनिमय दर नीति अपनाना, संरक्षणवाद की डिग्री और फैलाव को और कम करना, लघु-स्तरीय क्षेत्र के लिए आरक्षण समाप्त करना और कृषि एवं उपभोक्ता वस्तु क्षेत्रों का उदारीकरण करना शामिल है।
- बुनियादी ढांचे की बाधाएं: बुनियादी ढांचे की बाधाएं भारत के विकास और निर्यात दोनों पर एक गंभीर बाधा हैं। इन बाधाओं से निपटने के लिए एक ठोस रणनीति की तत्काल आवश्यकता है।
ये मूलभूत सिफारिशें सीधे तौर पर GVC एकीकरण की आधुनिक चुनौती का समाधान करती हैं। संरक्षणवाद कम करना और बुनियादी ढांचे में सुधार करना GVCs में कुशलतापूर्वक भाग लेने के लिए अनिवार्य शर्तें हैं।
निष्कर्ष
साक्ष्य स्पष्ट रूप से भारत के विकास के लिए एक खुली, निर्यात-उन्मुख और उदार व्यापार नीति का समर्थन करते हैं। ऐतिहासिक विश्लेषण से पता चलता है कि निर्यात-आधारित विकास ने काम किया है, जबकि सरकार के नेतृत्व वाले मॉडल ने नहीं। हालांकि, आज भारत के सामने मुख्य चुनौती आधुनिक वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में सफलतापूर्वक एकीकृत होना है, एक ऐसा क्षेत्र जहां यह अपने कई क्षेत्रीय साथियों से पीछे रह गया है। इस अंतर को पाटने के लिए, अतीत के सबक भविष्य के लिए मार्गदर्शक होने चाहिए। उदारीकरण और उन विशिष्ट संरचनात्मक बाधाओं को दूर करने पर केंद्रित निरंतर और जोरदार नीतिगत कार्रवाई की आवश्यकता है जो भारत की क्षमता को सीमित करती हैं, ताकि वैश्विक अर्थव्यवस्था में देश का उचित स्थान सुनिश्चित हो सके।
References:
Batra, A. (2022). India’s trade policy in the 21st century. Taylor & Francis.
Chandra, R. (2000). The impact of trade policy on growth in India [Doctoral thesis, University of Strathclyde]. DOI: 10.48730/as7m-0b14.
Rai, P. K., & Kumar, J. (n.d.). Foreign trade policy of India: for DTA, EOU and SEZ. OrangeBooks Publication.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें