सोमवार, 28 अक्टूबर 2019

खालीपन और सूनापन...

खालीपन और सूनापन ...

      खालीपन में नीरवता का होना पाया जाता है,जिसमें सूनापन भी होता है।खालीपन है तो सूनेपन का होना भी जरूरी हो जाता है।खालीपन को विज्ञान की भाषा में निर्वात कहा जा सकता है,साहित्य में शून्य इसके समानार्थी के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
       यदि कोई खाली है तो जरूरी नहीं कि वह खालीपन का शिकार है।यदि खाली है और खालीपन भी है तो सूनापन निश्चित रूप से आवश्यक नही।यदि विश्वाश नही है तो गांव घूम आइये।लोग खाली हैं पर खालीपन तो बिल्कुल भी नही और सूनापन तो रात के सन्नाटे में भी नही।
       जिस प्रकार खाली स्थान को भरने के लिए आस पास की हवा आ जाती है कुछ उसी प्रकार आपके खालीपन की अनुभूति कर कुछलोग आपके पास उपस्थित हो जाएंगे और खालीपन,सूनेपन को भरकर आपको सूनेपन जैसी गंभीर स्थिति से  बचाते हैं।
      गांव के आदमी की गजब की समस्या होती है।वह भरा हुआ होता है।उसकी चाहत होती है कि खाली हो जाय,थोड़ा खालीपन महसूस करे।पर हर आदमी भरा हुआ है।बेचैन है खाली होने के लिए।सुपात्र ढूंढ़ रहा है कि खाली हो जाऊं।एक खाली हुआ कि दूसरा उसे भर दिया।सारा दिन यह खेल चलता रहता है।
     खालीपन भरने के लिए किसी का भरा होना जरूरी नही है।कभी कभी दोनों ही खाली होते हैं और मिलकर भर जाते हैं।पति की अनुपस्थिति से उत्पन्न हुआ किसी स्त्री का खालीपन किसी परपुरुष से भर जाता है।इस खालीपन से विपरीतलिंगी अविवाहित  इतना अधिक हल्के हो जाते हैं कि उड़कर आस पास के खेत खलिहानों तक में पहुँच जाते हैं और खालीपन को भरकर चुपचाप घर आ जाते हैं।भरने की इस प्रक्रिया से उत्पन्न लालित्य की परिचर्चा से कितनो का सूनापन दूर हो जाता है।
      ईर्ष्या,द्वेष के कारण उत्पन्न माहौल गाँव को अक्सर सराबोर किये रहता है।इसके कारण अक्सर ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि "गांव युद्ध" छिड़ जाता है।अब ऐसी स्थिति में सूनापन की कल्पना कैसे की जा सकती है।
        "नशेड़ी समुदाय" तो सदैव से खालीपन और सूनेपन का विरोधी रहा है।इनके विरोध की सफलता को देखकर इस समुदाय की सदस्यता नित्यप्रति बढ़ती जा रही है।खालीपन को दूर करने के जब अन्य साधन साध्य की प्राप्ति नही कराते तो नशे में डूबकर खालीपन को एकदम भर दिया जाता है।कुछ लोग अन्य विधियों के प्रयोग की असफलता की प्रतिशतता को देखकर सीधे इसी विधि को प्राथमिकता देते हैं और अपने साधन,समय की बचत करते हैं।
     हर भरे हुए में एक खालीपन है,शून्य है,सूनापन है,पर हममें इतना साहस नहीं है कि हम उसे देख सकें,महसूस कर सकें,क्यूंकि हम डरते हैं खालीपन से,सच्चाई से,वास्तविकता से।
   
   
     
       

शनिवार, 26 अक्टूबर 2019

शुभ दीपावली...

हो रात घनी फिर भी  "दीपक",
      जलकर उजियारा करता है।
जलने का जख्म छुपाकर वह,
      रोशन गलियारा करता है।
बन सको पतंगा तो सायद,
      यह मर्म समझ में आएगा।
पर सावधान! है खेल कठिन,
      जान भी इसमें जाएगा।
"दीपक"की राख लगाकर लोग,
        बुरी नजर से बचा करेंगें।
बाला के गालों का टीका,
        "दीपक" सा फबा करेंगे।
 मैं प्रकाश हूँ, जीवन का आस हूँ,
         मैं हूँ प्रलय,मैं ही विनाश हूँ।
बदले की आग हूँ, प्रेम राग हूँ,
        ज्वाला में मैं, मैं ही आग हूँ।
तारों की टिम-टिम में मैं हूँ,
         मैं हूँ हर संकल्पों में।
क्यूँ ढूढ़ रहा विकल्पों में,क्यूँ ढूढ़ रहा विकल्पों में।


     

रविवार, 20 अक्टूबर 2019

जन्मदिन...

        जन्मदिन को हम स्वयं के दुनिया में आने के प्रतीक के रूप में मनाते हैं।यह प्रत्येक वर्ष मनाया जाने वाला व्यक्तिगत पर्व है,परंतु कुछ कर्मशील मानवता को इतना प्रभावित करते हैं कि यह व्यक्तिगत पर्व सार्वजनिक हो जाता है।
        महापुरुषों का जन्मदिन इसलिए मनाया जाता है कि हम उनके जीवन की उपलब्धियों को याद कर सकें और उसे अपने जीवन में अवतरित कर सकें।चाहे महिला हो या पुरुष,जब वह सामान्य मानव से महामानव बन जाता है तो उसे महापुरुष की संज्ञा दी जाती है।शक्ति एवं श्रेष्ठता का मतलब पुरूष, यही कारण है कि "महामहिला" शब्द को महापुरुष में ही समाहित कर दिया गया।
       व्यक्तिगत रूप से जन्मदिन मनाने का उद्देश्य भिन्न भिन्न हैं।कुछ लोग तो इसलिए मनाते हैं कि यह परंपरा के रूप में विकसित हो गया है तथा मृत्युभोज,प्रीतिभोज,बहूभोज की तरह सामाजिक कर्तव्यों में सामिल हो गया है।समाज में रहना है तो मर-जीकर इस परंपरा का निर्वहन करना है।
       दोस्तों में तो इसे मौज मस्ती और दावत उड़ाने के अवसर के रूप में देखा जाता है।यहां जन्मदिन की पार्टी  देनेवाला नहीं अपितु पार्टी लेने वाला ज्यादा सक्रिय होता है।कभी कभी तो पार्टी लेनेवाला ही दोस्ती और मौजमस्ती के नाम पर पार्टी दे देता है।
      ऑफिस में भी "बर्थडे" मनाने का नया चलन शुरू हुआ है जो विशुद्ध रूप से व्यावसायिक होता है तथा अक्सर उच्च पदस्थ लोंगो का ही मनाया जाता है।यहां का माहौल एकदम औपचारिक होता है,हंशी आती नही है बस मुस्कुराया जाता है।
        राजनीति में भी इसका बड़ा महत्व है।अपने पार्टी के नेताओं का जन्मदिन अद्वितीय महान व्यक्ति के रूप में मनाया जाता है।इसके माध्यम से अपनी राजनीतिक विचारधारा को प्रचारित प्रसारित करने का सोद्देश्य काम किया जाता है।इस दिशा में कुछ अग्रणी नेता जो तथाकथित महान कार्य करके महिला होते हुए भी महापुरुष की श्रेणी में आ गए अपने जन्मदिन को धनसंचय का माध्यम बना लिया।
       जन्मदिन का धार्मिक आधार यह है कि जो जीवन हम सफलता पूर्वक जी आये,इस दिन उस परमपिता को आभार प्रकट करें तथा शेष जीवन के लिए इस दिन परमपिता से आशीर्वाद प्राप्त करें।
       आध्यात्मिक रूप से जन्मदिन मनाने का महात्म्य यह है कि हम परमपिता से अलग होकर संसार में भटक रहे हैं,इसदिन खुस होते हैं कि प्रभु आपसे बिछड़ने के एक वर्ष और कम हो गए।अब वह समय निकट आ रहा है जब हमारा मिलन होगा।
      जन्मदिन संकल्प का दिन भी होता है जब हम जीवन के लक्ष्य के प्रति स्वयं को संकल्पित करते हैं तथा बड़े उद्देश्य के प्रति स्वयं को ऊर्जा से भरते हैं।
        

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2019

तैयारी करता हूँ......



           मेरे जीवन में इस कथन का बहुत महत्व रहा है।बेरोजगारी में इस वाक्य ने किसी अन्य वाक्य,वस्तु या संबंध से ज्यादा सहारा दिया है और गर्व करने का अवसर प्रदान किया है।परंतु अधिक समय इस वाक्य का उपभोग करने के कारण तैयारी के अंतिम पड़ाव पर इस वाक्य का स्वाद कटु और तीक्ष्ण हो गया,इसके प्रयोग से अजीब किस्म की अकुलाहट होने लगी यही कारण है कि सुरुआत में एक प्रेयसी की भांति प्रेम होने के बावजूद अंतिम समय में इसके छूटने पर कोई अफसोस नहीं रहा।हालांकि कुछ जीवट व्यक्तित्व इसके छूटने से या तैयारी न कर पाने के कारण आज भी अफसोस करते हैं।पर मुझे तो मुक्त होने जैसी अनुभूति होती है।

         कभी "तैयारी करता हूँ" कथन हम सभी को गर्व से भर देता था जो टायर में हवा की भांति होता था जो दिखाई तो नही देता था पर अनुभूति होती थी।इस कथन के प्रयोग मात्र से शरीर ऐसे अकड़ जाता था कि किसी भी चिकित्सक को टिटनेस होने का भ्रम हो जाय।तैयारी करने वाले के साथ-साथ घर-परिवार,समाज भी तैयारी के चमत्कार से अप्रभावित नही रह पाता था तथा तैयारी के "रिसाव प्रभाव" का रसपान करता रहता था।कालांतर में इन्हें भी स्वाद कटु और तीक्ष्ण लगने लगता था,वजह तैयारी करने वाले पर थोप दी जाती थी।

           अब देखता हूँ तो बहुत परिवर्तन हो चुका है,हो भी क्यों नहीं।जब सब बदल रहा है तो "तैयारी करता हूँ "कैसे अपरिवर्तित रहे।पर बड़ी निराशा होती है जब यह देखता हूँ कि तैयारी शुरू करने वाले का आत्मविश्वास रसातल के सबसे निचले पायदान पर पहुंचकर और नीचे जाने को व्याकुल है।जो कभी गर्व के साथ कहा जाता था कि तैयारी करता हूँ,आज पूंछने पर इस तरह जवाब दिया जाता है जैसे किसी लड़की को देखने जाइये और नाम पूछिये तो मारे शर्म के गड़ जाय और पूरी शक्ति संचित करके कहे...........बाबली ।

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2019

बहू




21वीं सदी...स्वतंत्रता, समानता, तीव्र, सतत एवं समावेशी विकास की सदी। इस सदी में बहू कहाँ है.... आज इसी पर बात करने का मन हो रहा है। पढ़े बेटी बढ़े बेटी का मूल भाव अपना दम तब तोड़ देता है जब यही पढ़ी लिखी बेटी बहू बन जाती है। उसके सर का भार इतना बढ़ जाता है कि वो बढ़ने की तो क्या सरकने की भी कोशिश नही कर पाती।

बहू अपने जीवन का सबसे समझदारी भरा, मर्यादित और औरतों का ही लिबास समझा जाने वाला 'लाज' भरा पहला कदम जब ससुराल में रखती है, वहीं से आलोचना सुरु हो जाती है। पहले ही कदम का इतना सूक्ष्म विश्लेषण कर दिया जाता है कि कोई भी सभ्य महिला अपने को असभ्य मानने लगे। जैसे बहुत तेज चलती है, तेज होगी, देखना बहुत जल्द ही अनियंत्रित हो जाएगी। बहुत धीमा-धीमा कदम रख रही है तो इसकी मीमांसा भी अनेक प्रकार से जैसे, बहुत धीरे-धीरे चल रही है, बाद में उड़ेगी या दीर्घसूत्री है, इनसे काम वाम नही हो पायेगा। कदम और चाल से चाल-चलन के इस रहस्यमयी ज्ञान के महत्त्व को यदि समझा गया होता तो निश्चित रूप से अपना चंद्रयान विफल न हुआ होता।

घर के सदस्यों का वरीयता क्रम इस तरह निर्धारित होता है कि इस क्रम के बीच में वाह्य व्यक्ति का प्रवेश असम्भव होता है। बहू चाहे जितनी उम्र की हो, चाहे जितनी पढ़ी लिखी हो, व्यवहारिक ज्ञान के चाहे जितने प्रमाण-पत्र उसके पास हों, ससुराल में प्रवेश करते ही सब व्यर्थ हो जाते हैं और वरीयता क्रम में वह सबसे निचले पायदान पर बिठा दी जाती है। परिवार के सबसे छोटे सदस्य को भी परिवार में जन्म लेने के कारण बहू को निर्देश देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

बाप दादा जो व्यवसाय करते थे वो उनके बच्चे उसे स्वीकार करें या कोई नया व्यवसाय चुनें इसकी आज़ादी होती है, पर बहुओं के लिए इसकी स्वतंत्रता 'लगभग' समाप्त कर दी गई, उन्हें उन कर्मों का वरण अनिवार्य बना दिया गया जो उनकी सास करती थीं। लगभग शब्द का चयन इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि कुछ क्रांतिकारी महिलाओं ने अपनी आजादी को अधिक महत्व दिया और उक्त बंधन को तोड़कर अपने लिए अपने अनुसार दुनिया में अपना स्थान बनाया, जिसे याद किया जाता है। बहुओं के लिए यदि स्वतंत्रता है तो केवल इस बात की कि वह अपने लिए नियत कर दी गई भूमिका को अपनी चमक खोकर और दमकाये और समाज की झूठी संवेदना अर्जित कर तसल्ली कर लें।

पाक कला में दक्ष बहू ससुराल में नई-नई रेसिपी से लोंगो का परिचय कराती है और परिणाम यह होता है कि कभी सब्जी के कलर के कारण पसंद नहीं किया जाता, तो कभी पनीर के टुकड़े का आकार पसंद नही किया जाता। सुबह की चाय और नास्ता तड़के पसंद करने वाले लोग भी रात का भोजन "अभी थोड़ी देर में खाऊंगा" कहकर देर रात भोजन ग्रहण कर बहू को अपने तरीके से आराम देने की भरपूर कोशिश करते हैं।

घर के सभी सदस्यों को कहीं भी आने जाने की आज़ादी होती है सिवाय बहू के। बहू को यदि कहीं जाना है तो अनजाने में ही सब के अंदर का अभिभावक जागृत हो जाता है, कुछ मुखर होकर प्रतिक्रिया दे देते हैं कि यह अनुचित है तो कुछ देश की अन्य समस्याओं में अपना कोई योगदान न दे पाने की विवशता की आदत से उपजी "मौन शक्ति" की प्रवृत्ति के कारण इस घनघोर समस्या पर मौन रह जाते हैं।

संस्थाओं को इसका आकलन करना चाहिए कि कितनी बहुएं हैं जो अपना कैरियर बना सकी हैं। मेरा तो अनुमान यही है कि नगण्य के बराबर ही महिलाओं ने बहू की भूमिका में कोई अन्य कैरियर विकल्प चुना होगा। लड़कियां जब हर क्षेत्र में अपना स्थान बना रहीं है तो बहू क्यों नहीं? इसका सीधा सा मतलब है कि उन्हें अवसर नहीं मिल रहा है। उनके अंदर की क्षमता का प्रयोग उचित मंच पर हो तो उत्पादकता बढ़ेगी, आत्मनिर्भरता आएगी और राष्ट्र निर्माण होगा। तथाकथित राष्ट्र भक्त इस दिशा में भी सोंचे।

रोल (भूमिका) और रूल (नियम) जब सब के लिए शिथिल हुए हैं तो बहुओं के लिए क्यों इतने कठोर बने हुए हैं? सायद इसलिए क्योंकि वह सह रही हैं। पर कब तक.......परिवार की जिम्मेदारी केवल उनके अकेले की नही है, परिवार के सभी सदस्य की है। जिम्मेदारी की बात जब होती है तो बहू सबसे आगे, जबकि सच्चाई यह है कि परिवार में उसे या तो शामिल ही नही किया जाता या सबसे निचले पायदान पर रखा जाता है। दिल तो उसका तब टूट जाता है जब "पति परमेश्वर" द्वारा यह कहा जाता है कि मेरा परिवार सबसे पहले है। क्या अर्थ है इसका? इसका यही अर्थ है कि परिवार में वही लोग शामिल हैं जो उसमें जन्म लेते हैं। बहू तो केवल परिवार में जन्म देती है।

परिवार को सदैव यह डर सताता रहता है कि कहीं बहू के कारण अलगाव न हो जाय। समझ में नहीं आता जो प्राकृतिक रूप से सच है उसे स्वीकार क्यों नही कर लिया जाता। यह प्रक्रिया है और प्रकृति के मूल में है। थोड़े समय के लिए हम उसे टाल भले ही दें पर रोक नही सकते। प्रकृति हमें पूरा अवसर देती है कि जो बुद्धि और विवेक आपको दिया गया है उसका प्रयोग करके अपनी सुविधानुसार घटना को घटने दें नही तो आपके न करने से प्रकृति नाराज होकर बड़े भयानक तरीके से अपने उद्देश्य को पूरा करने लगती है। अलग होने की इसी प्राकृतिक प्रक्रिया को पूरा करने के लिए जर्रा- जर्रा कोशिश करने लगता है, परिवार का हर सदस्य विघटन की प्रक्रिया में लग जाता है, बस दोषी बहू हो जाती है। बुद्धिमानी पूर्वक "उचित दूरी" का पालन करके अलगाव की समस्या से निपटा जा सकता है अन्यथा की स्थिति में महाभारत के लिए मार्ग खुला है।

अंततः उन सब के लिए मेरी चुनौती, जिन्हें यह लगता है कि बहू दोषी है........एक दिन के लिए बहू बनकर दिखाएं।

शनिवार, 12 अक्टूबर 2019

पतंग जिसे हम डोर के सहारे उड़ाते हैं....कभी गौर करिये,हमारे द्वारा ही यह भी तय कर दिया जाता है कि वह कितना ऊँचा उड़ेगा।उड़ाते भी हैं हम और उसे और ऊँचा उड़ने से रोकते भी हैं।
       

  More Hours, Less Output? Unpacking the Flawed Economics of the 70-Hour Work Week A recent proposal from Infosys Founder Narayan Murthy has...