मंगलवार, 15 अक्टूबर 2019

बहू




21वीं सदी...स्वतंत्रता, समानता, तीव्र, सतत एवं समावेशी विकास की सदी। इस सदी में बहू कहाँ है.... आज इसी पर बात करने का मन हो रहा है। पढ़े बेटी बढ़े बेटी का मूल भाव अपना दम तब तोड़ देता है जब यही पढ़ी लिखी बेटी बहू बन जाती है। उसके सर का भार इतना बढ़ जाता है कि वो बढ़ने की तो क्या सरकने की भी कोशिश नही कर पाती।

बहू अपने जीवन का सबसे समझदारी भरा, मर्यादित और औरतों का ही लिबास समझा जाने वाला 'लाज' भरा पहला कदम जब ससुराल में रखती है, वहीं से आलोचना सुरु हो जाती है। पहले ही कदम का इतना सूक्ष्म विश्लेषण कर दिया जाता है कि कोई भी सभ्य महिला अपने को असभ्य मानने लगे। जैसे बहुत तेज चलती है, तेज होगी, देखना बहुत जल्द ही अनियंत्रित हो जाएगी। बहुत धीमा-धीमा कदम रख रही है तो इसकी मीमांसा भी अनेक प्रकार से जैसे, बहुत धीरे-धीरे चल रही है, बाद में उड़ेगी या दीर्घसूत्री है, इनसे काम वाम नही हो पायेगा। कदम और चाल से चाल-चलन के इस रहस्यमयी ज्ञान के महत्त्व को यदि समझा गया होता तो निश्चित रूप से अपना चंद्रयान विफल न हुआ होता।

घर के सदस्यों का वरीयता क्रम इस तरह निर्धारित होता है कि इस क्रम के बीच में वाह्य व्यक्ति का प्रवेश असम्भव होता है। बहू चाहे जितनी उम्र की हो, चाहे जितनी पढ़ी लिखी हो, व्यवहारिक ज्ञान के चाहे जितने प्रमाण-पत्र उसके पास हों, ससुराल में प्रवेश करते ही सब व्यर्थ हो जाते हैं और वरीयता क्रम में वह सबसे निचले पायदान पर बिठा दी जाती है। परिवार के सबसे छोटे सदस्य को भी परिवार में जन्म लेने के कारण बहू को निर्देश देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

बाप दादा जो व्यवसाय करते थे वो उनके बच्चे उसे स्वीकार करें या कोई नया व्यवसाय चुनें इसकी आज़ादी होती है, पर बहुओं के लिए इसकी स्वतंत्रता 'लगभग' समाप्त कर दी गई, उन्हें उन कर्मों का वरण अनिवार्य बना दिया गया जो उनकी सास करती थीं। लगभग शब्द का चयन इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि कुछ क्रांतिकारी महिलाओं ने अपनी आजादी को अधिक महत्व दिया और उक्त बंधन को तोड़कर अपने लिए अपने अनुसार दुनिया में अपना स्थान बनाया, जिसे याद किया जाता है। बहुओं के लिए यदि स्वतंत्रता है तो केवल इस बात की कि वह अपने लिए नियत कर दी गई भूमिका को अपनी चमक खोकर और दमकाये और समाज की झूठी संवेदना अर्जित कर तसल्ली कर लें।

पाक कला में दक्ष बहू ससुराल में नई-नई रेसिपी से लोंगो का परिचय कराती है और परिणाम यह होता है कि कभी सब्जी के कलर के कारण पसंद नहीं किया जाता, तो कभी पनीर के टुकड़े का आकार पसंद नही किया जाता। सुबह की चाय और नास्ता तड़के पसंद करने वाले लोग भी रात का भोजन "अभी थोड़ी देर में खाऊंगा" कहकर देर रात भोजन ग्रहण कर बहू को अपने तरीके से आराम देने की भरपूर कोशिश करते हैं।

घर के सभी सदस्यों को कहीं भी आने जाने की आज़ादी होती है सिवाय बहू के। बहू को यदि कहीं जाना है तो अनजाने में ही सब के अंदर का अभिभावक जागृत हो जाता है, कुछ मुखर होकर प्रतिक्रिया दे देते हैं कि यह अनुचित है तो कुछ देश की अन्य समस्याओं में अपना कोई योगदान न दे पाने की विवशता की आदत से उपजी "मौन शक्ति" की प्रवृत्ति के कारण इस घनघोर समस्या पर मौन रह जाते हैं।

संस्थाओं को इसका आकलन करना चाहिए कि कितनी बहुएं हैं जो अपना कैरियर बना सकी हैं। मेरा तो अनुमान यही है कि नगण्य के बराबर ही महिलाओं ने बहू की भूमिका में कोई अन्य कैरियर विकल्प चुना होगा। लड़कियां जब हर क्षेत्र में अपना स्थान बना रहीं है तो बहू क्यों नहीं? इसका सीधा सा मतलब है कि उन्हें अवसर नहीं मिल रहा है। उनके अंदर की क्षमता का प्रयोग उचित मंच पर हो तो उत्पादकता बढ़ेगी, आत्मनिर्भरता आएगी और राष्ट्र निर्माण होगा। तथाकथित राष्ट्र भक्त इस दिशा में भी सोंचे।

रोल (भूमिका) और रूल (नियम) जब सब के लिए शिथिल हुए हैं तो बहुओं के लिए क्यों इतने कठोर बने हुए हैं? सायद इसलिए क्योंकि वह सह रही हैं। पर कब तक.......परिवार की जिम्मेदारी केवल उनके अकेले की नही है, परिवार के सभी सदस्य की है। जिम्मेदारी की बात जब होती है तो बहू सबसे आगे, जबकि सच्चाई यह है कि परिवार में उसे या तो शामिल ही नही किया जाता या सबसे निचले पायदान पर रखा जाता है। दिल तो उसका तब टूट जाता है जब "पति परमेश्वर" द्वारा यह कहा जाता है कि मेरा परिवार सबसे पहले है। क्या अर्थ है इसका? इसका यही अर्थ है कि परिवार में वही लोग शामिल हैं जो उसमें जन्म लेते हैं। बहू तो केवल परिवार में जन्म देती है।

परिवार को सदैव यह डर सताता रहता है कि कहीं बहू के कारण अलगाव न हो जाय। समझ में नहीं आता जो प्राकृतिक रूप से सच है उसे स्वीकार क्यों नही कर लिया जाता। यह प्रक्रिया है और प्रकृति के मूल में है। थोड़े समय के लिए हम उसे टाल भले ही दें पर रोक नही सकते। प्रकृति हमें पूरा अवसर देती है कि जो बुद्धि और विवेक आपको दिया गया है उसका प्रयोग करके अपनी सुविधानुसार घटना को घटने दें नही तो आपके न करने से प्रकृति नाराज होकर बड़े भयानक तरीके से अपने उद्देश्य को पूरा करने लगती है। अलग होने की इसी प्राकृतिक प्रक्रिया को पूरा करने के लिए जर्रा- जर्रा कोशिश करने लगता है, परिवार का हर सदस्य विघटन की प्रक्रिया में लग जाता है, बस दोषी बहू हो जाती है। बुद्धिमानी पूर्वक "उचित दूरी" का पालन करके अलगाव की समस्या से निपटा जा सकता है अन्यथा की स्थिति में महाभारत के लिए मार्ग खुला है।

अंततः उन सब के लिए मेरी चुनौती, जिन्हें यह लगता है कि बहू दोषी है........एक दिन के लिए बहू बनकर दिखाएं।

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