जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जनाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः |
‘मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उसमें मेरी निवृत्ति नहीं होती |
यह प्रसंग महाभारत का है। कृष्ण के धर्म उपदेश के बाद दुर्योधन ने यह कथन कहा था। कृष्ण ने भी अर्जुन को उपदेश देते समय कहा था कि "प्रवृत्ति ही बरत रहा है।"कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कार्य करने को आबद्ध है।
राम आसरे के पिताजी अपनी प्रवृत्ति के अनुसार आचरण करने को आबद्घ थे। प्रवृत्ति उनकी दान की नहीं भोग की थी। हालांकि कोरोना संकट के बाद उत्पन्न आर्थिक हालात से प्रभावित होकर आज पीएम केयर्स में दान करने की उनकी इच्छा हुई थी। परंतु प्रवृत्ति का दास होने के कारण मनुष्य उसके विपरीत कुछ भी करने में सक्षम नहीं होता। राम आसरे के पिताजी के दान की इच्छा गर्म तवे पर डाले गए जल की बूंदों के समान गायब हो गई। उनके मन में यह तर्क आया कि जब प्रधानमंत्री राहत को ष पहले से ही था तो एक अलग कोष बनाए जाने की क्या आवश्यकता थी। चाहते तो इस प्रश्न का समाधान वह व्यक्तिगत स्तर पर कर सकते थे लेकिन उनके मन में डर यह था कि कहीं इस प्रश्न का कोई वाजिब जवाब मिल गया तो वह अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कार्य नहीं कर पाएंगे। इसलिए इस प्रश्न के समाधान के लिए उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया।
परंतु, इससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि राम आसरे के पिताजी के मन में कल्याण की भावना नहीं थी। लॉकडाउन के बाद से वे मदिरापान नहीं कर पाए थे। मदिरापान ना कर पाने के कारण उनके शरीर की सारी कोशिकाएं उन्हें धिक्कार रही थी। कोशिकाओं के न्यूनतम आवश्यकताओं की आपूर्ति में असफल राम आसरे के पिताजी स्वयं को लज्जित महसूस कर रहे थे। सो आज उन्होंने ठान लिया कि चाहे जितनी कीमत देने पड़े लेकिन वह आज कोशिकाओं को उनका मौलिक अधिकार दिला कर रहेंगे। बड़ी मुश्किल से दोगुने दाम पर एक खंभे की व्यवस्था कर पाए। राम आसरे के पिताजी आज पहली बार मोदी के समानांतर खुद को महसूस कर रहे थे। जहां एक और मोदी देश के करोड़ों लोगों को की आवश्यकताओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध दिख रहे थे तो वहीं राम आसरे के पिताजी अपने करोड़ों कोशिकाओं को संतुष्ट करने के लिए समर्पित थे। वास्तव में संकल्प शक्ति और उसके क्रियान्वयन में वह मोदी जी से बीस ही थे।
इस प्रकार अपने संचित धन का अपनी प्रवृत्ति के अनुसार उपयोग हो रहा था,प्रवृत्ति ही बरत रहा था।
यह प्रसंग महाभारत का है। कृष्ण के धर्म उपदेश के बाद दुर्योधन ने यह कथन कहा था। कृष्ण ने भी अर्जुन को उपदेश देते समय कहा था कि "प्रवृत्ति ही बरत रहा है।"कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कार्य करने को आबद्ध है।
राम आसरे के पिताजी अपनी प्रवृत्ति के अनुसार आचरण करने को आबद्घ थे। प्रवृत्ति उनकी दान की नहीं भोग की थी। हालांकि कोरोना संकट के बाद उत्पन्न आर्थिक हालात से प्रभावित होकर आज पीएम केयर्स में दान करने की उनकी इच्छा हुई थी। परंतु प्रवृत्ति का दास होने के कारण मनुष्य उसके विपरीत कुछ भी करने में सक्षम नहीं होता। राम आसरे के पिताजी के दान की इच्छा गर्म तवे पर डाले गए जल की बूंदों के समान गायब हो गई। उनके मन में यह तर्क आया कि जब प्रधानमंत्री राहत को ष पहले से ही था तो एक अलग कोष बनाए जाने की क्या आवश्यकता थी। चाहते तो इस प्रश्न का समाधान वह व्यक्तिगत स्तर पर कर सकते थे लेकिन उनके मन में डर यह था कि कहीं इस प्रश्न का कोई वाजिब जवाब मिल गया तो वह अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कार्य नहीं कर पाएंगे। इसलिए इस प्रश्न के समाधान के लिए उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया।
परंतु, इससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि राम आसरे के पिताजी के मन में कल्याण की भावना नहीं थी। लॉकडाउन के बाद से वे मदिरापान नहीं कर पाए थे। मदिरापान ना कर पाने के कारण उनके शरीर की सारी कोशिकाएं उन्हें धिक्कार रही थी। कोशिकाओं के न्यूनतम आवश्यकताओं की आपूर्ति में असफल राम आसरे के पिताजी स्वयं को लज्जित महसूस कर रहे थे। सो आज उन्होंने ठान लिया कि चाहे जितनी कीमत देने पड़े लेकिन वह आज कोशिकाओं को उनका मौलिक अधिकार दिला कर रहेंगे। बड़ी मुश्किल से दोगुने दाम पर एक खंभे की व्यवस्था कर पाए। राम आसरे के पिताजी आज पहली बार मोदी के समानांतर खुद को महसूस कर रहे थे। जहां एक और मोदी देश के करोड़ों लोगों को की आवश्यकताओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध दिख रहे थे तो वहीं राम आसरे के पिताजी अपने करोड़ों कोशिकाओं को संतुष्ट करने के लिए समर्पित थे। वास्तव में संकल्प शक्ति और उसके क्रियान्वयन में वह मोदी जी से बीस ही थे।
इस प्रकार अपने संचित धन का अपनी प्रवृत्ति के अनुसार उपयोग हो रहा था,प्रवृत्ति ही बरत रहा था।
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