शनिवार, 26 अक्टूबर 2019

शुभ दीपावली...

हो रात घनी फिर भी  "दीपक",
      जलकर उजियारा करता है।
जलने का जख्म छुपाकर वह,
      रोशन गलियारा करता है।
बन सको पतंगा तो सायद,
      यह मर्म समझ में आएगा।
पर सावधान! है खेल कठिन,
      जान भी इसमें जाएगा।
"दीपक"की राख लगाकर लोग,
        बुरी नजर से बचा करेंगें।
बाला के गालों का टीका,
        "दीपक" सा फबा करेंगे।
 मैं प्रकाश हूँ, जीवन का आस हूँ,
         मैं हूँ प्रलय,मैं ही विनाश हूँ।
बदले की आग हूँ, प्रेम राग हूँ,
        ज्वाला में मैं, मैं ही आग हूँ।
तारों की टिम-टिम में मैं हूँ,
         मैं हूँ हर संकल्पों में।
क्यूँ ढूढ़ रहा विकल्पों में,क्यूँ ढूढ़ रहा विकल्पों में।


     

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर पंक्तियां हैं!

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