घर के सामने हाईवे और हाईवे पर लोगों का झुंड। आप सोच रहे होंगे कि लॉकडॉउन के पहले की बात कर रहा हूं। जी नहीं यह लॉकडाउन की ही बात है। एक महीने से अधिक हो चुके लॉकडाउन से उपजी विवशता और भावुकता का मारा ये वास्कोडिगामा का दल है जो नई दुनिया की नहीं बल्कि अपने घर,अपने मूल की खोज में निकल पड़ा है।
जब कभी ये घर से निकले थे तब भी विवशता ही थी।गरीबी की निरपेक्ष भारतीय परिभाषा के आधार पर न्यूनतम कैलोरी की आवश्यकताओं की आपूर्ति न हो पाने की विवशता।यही विवशता ही है जो इन्हें यह भरोसा नहीं दे पा रही है कि सरकार इनके खाने पीने की व्यवस्था कर देगी।दरअसल सरकारी दावों को अभी तक ये झूठ होते हुए ही देखे थे,सो वर्तमान में सरकार द्वारा दिए जा रहे आश्वासन पर इनका विश्वास नहीं बन पा रहा।न्यूज चैनलों पर हकीकत से ज्यादा कोरोना की बर्बादी और आभासी दुनिया के झूठ ने इन्हें एन केन प्रकारेण घर पहुंचने को विवश कर दिया है।
ये पूरी भीड़ है,पूरा कारवां है, जिसमें बच्चे हैं महिलाएं हैं। कुछ घर पहुंच गए हैं, कुछ की मंजिल अभी भी दूर है, कुछ संसार की यात्रा से थक हार कर अनंत यात्रा पर निकल चुके हैं।शेष को लाने की सरकार की तैयारी चल रही है।आप सोच रहे होंगे कि तैयारी में इतनी देर क्यों?तो भैया ये तैयारी है और तैयारी में देर होती ही है।यह ज्ञान हमें सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के दौरान हुआ था।
आजा उम्र बहुत है छोटी,
अपने घर में भी है रोटी.......चिट्ठी आयी है।
अपने घर में भी है रोटी.......चिट्ठी आयी है।
Very true n nicely expressed
जवाब देंहटाएंगरीब सिर्फ पेट की बात ही समझता है।
जवाब देंहटाएंउसे उससे ज्यादा कुछ चाहिए ही नही। विवशता को आपने अच्छे से चित्रित किया है।